कभी गौर से देखा है समुन्दर किनारे इन टूटे बिखरे सीपियों को ... गौर से न सही पर नज़र तो पड़ी होगी ! समुद्र तट पर एकाकी विचरण हो या भीड़ में चहलकदमी ...ये हमेशा बिखरे रहते हैं....कुछ पूरे कुछ टूटे हुए...कुछ रंगीन कुछ सादे ...ऐसे ही चलो तो हमारे जूतों के नीचे टूट जाते है पर नंगे पैर चलो तो कील जैसे चुभते हैं जिसका दर्द असहनीय हो जाता है । मेरी नज़र में ये प्रतीक हैं मेरे हर वोह ख्वाब का जो मैंने कभी देखे थे। उनमे से अधिकतर टूट के बिखर गए कुछ इन्ही सीपियों की तरह...उनमे भी रंग थे ; गहराई थी; पर सपने तो आख़िर सपने ही हैं...वास्तविकता से मीलों दूर। यह विशाल सागर मानव के उस अपरिमित कल्पना शक्ति का प्रतीक है जिससे वोह सृजन शीलता प्राप्त करता है ....और ईश्वर सम बन जाता है। उसी तुलना में उसके ख्वाब सीपी जैसे खुद्र प्रतीत होते है। समुन्दर की लहरें वास्तविकता और समय के प्रकोप का प्रतीक है जिससे टकराकर ख्वाब चूर चूर हो जाते है। शायद इसलिए मैंने ख्वाब देखना छोड़ दिया है।
इन सीपियों में शायद कभी अनमोल मोटी भी हुआ करती थी ; पर अब कहाँ?