कभी कभी तो लगता है की बातों की लड़ी अपने आप में एक विस्मय है.....कभी मुँह से बाहर आती है...कभी आंखों से झांकती है...तो कभी मन से मन को बाँधती है....आख़िर यह रहस्य है क्या?बातें...क्या यह शब्दों की एक सुसज्जित लड़ी है?या फिर अपने आप को ज़ाहिर करने का एक तरीका?अपनी भावनायों को दूसरो तक पहुचाने का एक मध्यम...कहते है...कि प्राचीन मनुष्य ने सय्यमित रूप से कुछ आवाजों को "बातों" का नाम दिया है....जैसे जैसे सभ्यता की उन्न्नती हुई...आवाज़ शब्द में और शब्द भाषा में परिणत हो गई...पर बातों का क्या?इतिहास गवाह है,ज्यादातर मुद्दों पे बातें तो बहुत हुई पर असली मसला शब्दों के दल दल में गुम हो गई.....तो क्या हम बातें करना छोड़ दे?बातों का सिलसिला तो जारी रहेगा...चाहे वह जुबां से बयाँ हो न हो...मन की बातें,तन की बातें,आंखों की बातें;हर बात में कुछ तो बात है...यह गुत्थी तो उलझती जा रही है....उसे सुलझाने के लिए भी बातों की ज़रूरत है...इसी उलझन में असली बात तो कहना भूल ही गई...कमान से निकली हुई तीर और मुह से निकले हुए शब्द(बातें) कभी वापस नही आते....पुराणी कहावत है....मानो न मानो पर यह लाख टकें की "बात" है!!!
Friday, September 11, 2009
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