Friday, September 11, 2009

लम्हें...

"लम्हों की गुजारिश थी यह..." या फिर "येँ लम्हें ,येँ बातें..."! इस कदर लम्हों में उलझ के रह जायेंगे यह सोचा न था...

शाब्दिक रूप से लम्हा (या बहुवचन->लम्हें) समय का एक कतरा है...एक पलछिन...जो एक बंधे बंधाये संज्ञा में कैद कर दिया गया है...काल के अतल गहराइयों से यह गोल्चक्र की तरह उभरता गया है...जिस प्रकार बूँद बूँद से सागर बनती है उसी प्रकार कतरा कतरा लम्हों को एकत्रित किया जाए तो समय की सीमा रहित विशालता प्रकट होती है...इस पूरे पृथ्वी पे हर रूप से वोही होता है जो लम्हें गुजारिश करते हैं...पर हमारी इच्छायों का क्या?जीवन के हर मोड़ पे असफलता की चोट खाते हुए हम आगे बड़ते जाते है...यह सोचते हुए की कभी न कभी हम सफलता की शिखर पर विद्यमान होंगे ...लेकिन....आखिर वोही होता है जो मंजूरे खुदा होता है...कोई इसे खुदा कहे या किस्मत...मैं इसे लम्हा मानती हूँ....इन लाखों पलों की ज़िन्दगी में हर एक पल नियति के हाथों नियंत्रित होता है...कुछ पल खुशी या फिर कुछ पल गम...यह लम्हों का कारवां संतुलित रूप से ही संचालित होते है...यह तो हमारी गलती है की हमसे गम के पल काटे नही कट-ते परन्तु खुशी के लम्हें यु आतें हैं और यूँ चले जाते है...कभी हमारी अभिलाषाएं इस सुख दुःख के पलों से अनुक्रमित हो जाते हैं तो कभी कोई भी तारतम्य नही रहता है...समय और जीवन लूकाछिपी खेलते रहते हैं और हम हमेशा लम्हों को पकड़ने में भागते रहते हैं...लम्हों को मुट्ठी में बंध करना जैसे पारे की बूंदों को समाये रखना...फिर रेत को मुश्तिबद्ध करना हो...जितनी भी कोशिश क्यूँ न की जाए...वे बंधन मुक्त हो ही जाते हैं...कब किस लम्हे में हम कमजोर पड़ जाए या कब किस पल क्या हो जाए ...इसी पहेली को सुलझाने का ही नाम ज़िन्दगी है!कुछ लम्हों को भूल जाना ही बेहतर है..और कुछ पलों को संजोना ज़रूरी है...यह बहुत ही कठिन गणित की समस्या है...और जो इसे सुलझाना जान ले...उसे ज़िन्दगी की क्या ज़रूरत.!!!..जीवन के अन्तर-निहित रहस्य को भेद करने का एक ही सरल उपाय है-->

"जो भी लिखा है;दिल से जिया है

यह लम्हा फिल हाल जी लेने दे...."

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