Wednesday, September 16, 2009

यह रिश्ता क्या कहलाता है? अलौकिक अनुबंध...

मुझे तुम्हारे साथ एकाकीपन की चाह है --- अपनी निजी अवधि की खोंज में हूँ मैं ,
तुमसे जुड़े ख्वाबोँ के रंग अभी कच्चे सही, उस अधूरी सतरंगी छवि पर न्यौछावर हूँ मैं ,
तुम्हारे प्यार में अपने नयेपन की चाह है !
रौशनी में , वीराने में --- मुझे तुम्हारे साथ एकाकीपन की चाह है।


यह काया जैसे है कोई झरोखा , उसपर है सारा आकाश --- सपनों की यात्रा और उनका आकार परिवर्तन ,
उसी में आंधी का एक दौर , बारिश में डूब जाना --- सपनों का अंत एवम हीम शीतल अनुभूति ,
तुम्हारे प्रेम के उष्ण आवेश से कृत कृत हूँ मैं , मुझे अपने स्व में भिन्नता की चाह है!
मुझे तुम्हारे स्पर्श सहित एकाकीपन की चाह है, मुझे तुम्हारे साथ एकाकीपन की चाह है।


काले घने मेघ में छिप गया है चाँद , हवा के झोंके से बिखर गई है चांदनी --- जीवन के उतार चढ़ाव जैसे छाया-प्रकाश की लूकाछिपी ,
फिर कहीं से धुप का आना , और हमें अपने सुन्हरें आवरण से आच्छादित कर ेना,
उसी माया के आकर्षण से , उसी स्पर्श के एहसास से
मुझे तुममे अपने भिन्नता की चाह है!
मुझे तुम्हारे स्पर्श सहित एकाकीपन की चाह है, मुझे तुम्हारे साथ एकाकीपन की चाह है।



Sunday, September 13, 2009

देखा जो नज़र उठाके....

देखा जब भी नज़र उठाके , खाली जगह ही मिली हमें
फिर कभी नज़र उठाया ही नही , खालीपन के डर से
शायद तुम बैठे थे किसी सूनसान कोने में , जहाँ मेरी नज़र पहूच ही न सकी
कभी सोचा है की शायद तुम थे बेखबर मुझसे , क्या इतने बुरे थे हम ?

जमाने की बातों में तो तुम भी उलझे थे कभी , तो आज मुझपे क्यूँ है यह बंदिश,
ज़िन्दगी में कुछ भी नही है आसान ,इतनी ख़बर हो गई है हमे,
ख़ुद से जो अगर तुम पूछो , हम तुम्हारे कभी थे ही नही!

तेरी आंखों का जादू कब से है मुझपर ,पुरी दुनिया की किसे पड़ी है
पर तेरी आंखों ने सिर्फ़ दुनिया की भीड़ को निहारा है , मेरी नज़रो को नही
इस भीड़ में सबसे पीछे हम थे खड़े, जाने की आस में...

महफिले आई और गई, सब को शम्मा मिली , पर हमे तन्हाई,
लोग भी आए और गए, और हम दोनों भीड़ में खो गए,
पर तुम तो आज आए हो, दिल में हो कब से बसे
न मैंने कभी यह जाना , न तुमने कभी जताया

मुस्कुराके न सही पर बात तो छेरी होती, टालने की शामत ही फिर कहाँ आती,
अब के जो मिलेंगे नही कहेंगे कितने बुरे हो तुम!

तेरी आंखों का जादू कब से है मुझपर ,पुरी दुनिया की किसे पड़ी है
पर तेरी आंखों ने सिर्फ़ दुनिया की भीड़ को निहारा है , मेरी नज़रो को नही
इस भीड़ में सबसे पीछे हम थे खड़े, जाने की आस में...

Friday, September 11, 2009

लम्हें...

"लम्हों की गुजारिश थी यह..." या फिर "येँ लम्हें ,येँ बातें..."! इस कदर लम्हों में उलझ के रह जायेंगे यह सोचा न था...

शाब्दिक रूप से लम्हा (या बहुवचन->लम्हें) समय का एक कतरा है...एक पलछिन...जो एक बंधे बंधाये संज्ञा में कैद कर दिया गया है...काल के अतल गहराइयों से यह गोल्चक्र की तरह उभरता गया है...जिस प्रकार बूँद बूँद से सागर बनती है उसी प्रकार कतरा कतरा लम्हों को एकत्रित किया जाए तो समय की सीमा रहित विशालता प्रकट होती है...इस पूरे पृथ्वी पे हर रूप से वोही होता है जो लम्हें गुजारिश करते हैं...पर हमारी इच्छायों का क्या?जीवन के हर मोड़ पे असफलता की चोट खाते हुए हम आगे बड़ते जाते है...यह सोचते हुए की कभी न कभी हम सफलता की शिखर पर विद्यमान होंगे ...लेकिन....आखिर वोही होता है जो मंजूरे खुदा होता है...कोई इसे खुदा कहे या किस्मत...मैं इसे लम्हा मानती हूँ....इन लाखों पलों की ज़िन्दगी में हर एक पल नियति के हाथों नियंत्रित होता है...कुछ पल खुशी या फिर कुछ पल गम...यह लम्हों का कारवां संतुलित रूप से ही संचालित होते है...यह तो हमारी गलती है की हमसे गम के पल काटे नही कट-ते परन्तु खुशी के लम्हें यु आतें हैं और यूँ चले जाते है...कभी हमारी अभिलाषाएं इस सुख दुःख के पलों से अनुक्रमित हो जाते हैं तो कभी कोई भी तारतम्य नही रहता है...समय और जीवन लूकाछिपी खेलते रहते हैं और हम हमेशा लम्हों को पकड़ने में भागते रहते हैं...लम्हों को मुट्ठी में बंध करना जैसे पारे की बूंदों को समाये रखना...फिर रेत को मुश्तिबद्ध करना हो...जितनी भी कोशिश क्यूँ न की जाए...वे बंधन मुक्त हो ही जाते हैं...कब किस लम्हे में हम कमजोर पड़ जाए या कब किस पल क्या हो जाए ...इसी पहेली को सुलझाने का ही नाम ज़िन्दगी है!कुछ लम्हों को भूल जाना ही बेहतर है..और कुछ पलों को संजोना ज़रूरी है...यह बहुत ही कठिन गणित की समस्या है...और जो इसे सुलझाना जान ले...उसे ज़िन्दगी की क्या ज़रूरत.!!!..जीवन के अन्तर-निहित रहस्य को भेद करने का एक ही सरल उपाय है-->

"जो भी लिखा है;दिल से जिया है

यह लम्हा फिल हाल जी लेने दे...."

बातें...

कभी कभी तो लगता है की बातों की लड़ी अपने आप में एक विस्मय है.....कभी मुँह से बाहर आती है...कभी आंखों से झांकती है...तो कभी मन से मन को बाँधती है....आख़िर यह रहस्य है क्या?बातें...क्या यह शब्दों की एक सुसज्जित लड़ी है?या फिर अपने आप को ज़ाहिर करने का एक तरीका?अपनी भावनायों को दूसरो तक पहुचाने का एक मध्यम...कहते है...कि प्राचीन मनुष्य ने सय्यमित रूप से कुछ आवाजों को "बातों" का नाम दिया है....जैसे जैसे सभ्यता की उन्न्नती हुई...आवाज़ शब्द में और शब्द भाषा में परिणत हो गई...पर बातों का क्या?इतिहास गवाह है,ज्यादातर मुद्दों पे बातें तो बहुत हुई पर असली मसला शब्दों के दल दल में गुम हो गई.....तो क्या हम बातें करना छोड़ दे?बातों का सिलसिला तो जारी रहेगा...चाहे वह जुबां से बयाँ हो न हो...मन की बातें,तन की बातें,आंखों की बातें;हर बात में कुछ तो बात है...यह गुत्थी तो उलझती जा रही है....उसे सुलझाने के लिए भी बातों की ज़रूरत है...इसी उलझन में असली बात तो कहना भूल ही गई...कमान से निकली हुई तीर और मुह से निकले हुए शब्द(बातें) कभी वापस नही आते....पुराणी कहावत है....मानो न मानो पर यह लाख टकें की "बात" है!!!

Ehsaas!


कुछ एहसास जो तुमने अब छोड़े, है ख़ास,
कुछ एहसास जो तुमने तब छोड़े, थे ख़ास;
कुछ तुममे थी खामियां, कुछ मुझमे थी कमजोरियां,
वक्त कभी रुका नही,पीछे मुड़के हमने कभी देखा नही,
चलती का नाम है ज़िन्दगी,
थमना किस्मत में लिखा ही नही;
एहसास गुज़रे हुए कल का,एहसास बीते हुए पल का,
मुट्ठी में बाँध कर लेना चाहती हूँ
पर ये हैं की पारे की तरह फिसलते जा रहे हैं,
रेत होते तो शायद कैद रह जाते;
एहसास हर वो हूक का जो दिलो में उठे;
एहसास हर वो पलक का जो नज़रों से टूटे;
एहसास हर वो लव्ज़ का जो होठों से छूटे;
एहसास हर वो आंसू के; एहसास हर वो मुस्कराहट की;
एहसास बनकर रह गए हैं दिल की हर चाहत,मन की हर राहत;
बहुत से लम्हें गुज़रे प्यार में, तकरार में
एहसास बनकर रह गए है वो हर एहसास आंखों आखों में!